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मॉडर्नाइजेशन और हमारी सभ्यता – दोनों में बैलेंस ज़रूरी

 

आजकल सब कुछ इतना फास्ट है – टेक्नोलॉजी, फैशन, लाइफस्टाइल – हर चीज़ हर रोज़ बदल रही है। हम नए ट्रेंड्स में इतने व्यस्त हो गए हैं कि कभी-कभी लगता है जैसे अपनी असली पहचान ही ढूंढनी पड़ रही हो। मतलब, मॉडर्न बनना ग़लत नहीं है, लेकिन अगर उसके कारण हम अपनी संस्कृति, अपनी जड़ों को भूल जाएं, तो वह भी ठीक नहीं है। मुझे लगता है कि संस्कृति सिर्फ़ कपड़ों या त्योहारों तक सीमित नहीं है, बल्कि हमारे इमोशन्स और वैल्यूज से जुडी है। जैसे हमारे गांव की कहानियां, दादी-नानी की बातें, लोक गीत, मिट्टी की ख़ुशबू, पूजा के वक़्त घंटी की आवाज़ ,ये सब मिलकर हमारे कल्चर का एहसास देते हैं।

आज के बढ़ते युग में जहाँ ग्लोबलाइजेशन और मोर्डेनिज़शन दो प्रमुख पह्लूं हैं। हालाँकि, हर चीज़ एक दायरे में ही अच्छी लगती है। जहाँ ये दोनों हमें पूरी दुनिया से जुड़, आगे बढ़ने में मदद करते हैं, वही दूसरी तरफ अगर ध्यान न रखा जाएं तो यह हमसे हमारी संस्कृति छीन भी सकतें हैं। सोशल मीडिया की देन से अब हर कोई पूरी दुनिया के बारे में कुछ भी जान और पढ़ सकता है, परन्तु इसी सोशल मीडिया के कारण “कूल” दिखने के लिए युवा अपनी संस्कृति को छोड़ने लगा है। सब नहीं, पर बहुत। यह चीज़ आमतौर पर शहरी इलाकों में देखि जा सकती है।

हमारे कपड़ें अब बीएस पर्व त्यौहार तक सीमित हैं, और लोक-खाने को तोह मतलब भुला ही दिया गया है। ट्रेंड्स को फॉलो करने के चक्कर में, और FOMO यानि की fear of missing out के बीच अपनी संस्कृति को आउटडेटिड या बोरिंग कहने लगें हैं। इसी को रोकने के लिए और हमारे संस्कृति को ज़िंदा रखने के लिए हमारी सरकार ने ‘एडॉप्ट ए हेरिटेज’ योजना जैसी स्कीमें भी चलायीं हैं। साथ ही साथ हमारे प्रधानमंत्री भी हर अवसर पर देश के युवा को जागरूक करते रहतें हैं के वह भी अपनी संस्कृति को बचाने के लिए आगे बढ़ें।

अंत में यह हम युवाओं की ही प्रथम प्राथमिक्ता होनी चाहिए की हम अपनी जड़ों को ना भूलें। अपनी संस्कृति को टेक्नोलॉजिकल ग्रोथ के साथ बढ़ाना, और उसका सम्मान क्र पूरे विश्व में फैलाना हमारी ज़िम्मेदारी है। “वह घर कोनसा जिसका पता भूल जाये”। मॉडर्न बनो, लेकिन अपनी मिट्टी की ख़ुशबू के साथ।

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