दिल्ली हाईकोर्ट की एक पीठ ने एक आरोपी की अपील स्वीकार करते हुए उसकी उम्रकैद की सजा को रद्द कर दिया। आरोपी को पहले निचली अदालत द्वारा शेष जीवन तक कारावास की सजा सुनाई गई थी। जस्टिस प्रतिभा एम सिंह और अमित शर्मा की बेंच ने इस मामले में सुनवाई की।
हाईकोर्ट ने कहा कि यह स्पष्ट नहीं है कि निचली अदालत ने यह निष्कर्ष कैसे निकाला कि यौन शोषण हुआ है, जबकि पीड़िता स्वेच्छा से आरोपी के साथ गई थी।बेंच ने कहा कि सबूतों की कमी और तथ्यों की गलत व्याख्या के कारण आरोपी को सजा दी गई।न्यायालय ने यह भी माना कि गवाहों की गवाही और प्रस्तुत किए गए सबूतों में विरोधाभास था।
आरोपी पर एक महिला के साथ यौन शोषण और अपहरण का आरोप लगाया गया था।निचली अदालत ने उसे दोषी ठहराते हुए शेष जीवन तक कारावास की सजा सुनाई थी।हाईकोर्ट ने मामले की गहन समीक्षा करते हुए पाया कि पीड़िता ने अपनी स्वीकृति से आरोपी के साथ समय बिताया था।
पीठ ने कहा कि किसी भी मामले में, विशेष रूप से यौन शोषण के मामलों में, सजा देने से पहले मजबूत और ठोस सबूतों का होना अनिवार्य है।न्यायालय ने कहा कि न्याय की प्रक्रिया में दोष न हो, इसके लिए सावधानीपूर्वक तथ्यों की जांच होनी चाहिए।न्यायालय ने यह भी कहा कि बिना स्पष्ट सबूतों के, आरोपी को दोषी ठहराना न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है।
इस मामले में पीड़िता और आरोपी दोनों के बयानों में स्पष्ट विरोधाभास पाया गया।यह भी स्पष्ट हुआ कि पीड़िता ने स्वेच्छा से आरोपी का साथ दिया था और यौन शोषण का आरोप पर्याप्त सबूतों से साबित नहीं हो पाया।
दिल्ली हाईकोर्ट ने आरोपी को बरी करते हुए कहा कि मामले में तथ्यों और सबूतों का सही आकलन नहीं किया गया था।न्यायालय ने कहा कि निचली अदालत को सबूतों की अधिक गहराई से जांच करनी चाहिए थी।
यह फैसला इस बात को रेखांकित करता है कि किसी भी आरोप में सजा देने से पहले तथ्यों और सबूतों की सटीकता सुनिश्चित करना बेहद आवश्यक है।यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के महत्व को भी दर्शाता है।यौन शोषण के मामलों में निष्पक्ष जांच और न्यायिक विवेक का पालन करना जरूरी है।