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पर्वतीय पर्यटक स्थलों पर बाढ़: मौसम का कहर या मानवजनित भूलें

मानसून या महाविनाश?: पहाड़ों के बदलते चेहरे

हिमालय के सुंदर पहाड़ी शहर, जो कभी नील वर्णी नदियों, शांत घाटियों और हरित वनस्पतियों के लिए जाने जाते थे, आज दहशत, बर्बादी और असहायता की कड़वी मिसाल में बदल रहे हैं। हर मानसून के साथ बाढ़, भूस्खलन और गाँवों की उजड़ी बस्तियाँ जैसे अब पहाड़ों की नई पहचान बन गई हैं। क्या सिर्फ मौसम इसके गुनहगार हैं, या मानव की अनियंत्रित महत्वाकांक्षा और प्रकृति के साथ क्रूर खिलवाड़ भी जिम्मेदार हैं?

उत्तराखंड, हिमाचल, सिक्किम जैसे इलाके 2025 की बारिश में एक बार फिर तबाही की चपेट में हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि पहाड़ों का प्राकृतिक ढांचा बेहद संवेदनशील है ठोस चट्टानों की जगह युवा, अस्थिर मिट्टी, संकरी घाटियों में तेजी से गिरते जलप्रवाह और तेज ढलानों पर मज़दूरी ढोते गाँव। लेकिन परंपरागत जीवनशैली और स्थानीय जानकारी से लैस समावेशी विकास नहीं हुआ, बल्कि बड़ी सड़कों, जलविद्युत परियोजनाओं, बेतरतीब पर्यटक होटलों और अवैज्ञानिक निर्माणों ने पूरे क्षेत्र को नाजुक बना दिया है।

कई बार मानसून की शक्ल में आती प्रलय को प्राकृतिक या ‘क्लाउडबर्स्ट’ बता कर हालात का असली विश्लेषण नहीं किया जाता। हकीकत यह है कि जब नदियों के किनारे अवैज्ञानिक तरीके से खुदाई, जंगलों की कटाई, पहाड़ों को चौड़ा करने के लिए बारूद का उपयोग, और होटल–बाजार हर नदी किनारे आ बसें, तो मामूली बारिश भी महाविनाश में बदल जाती है।

नदी के साथ मलबा आने का रास्ता बंद हो जाता है। वनों के कटने से मृदा ढलान छोड़ देती है। सड़कों का मलबा सीधा जलधाराओं में मिलने लगता है। बरसात के समय रोक-टोक से ऊपर बड़े निर्माण होते हैं। ग्राम्य समुदायों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाता। घोषणा पत्र, पुनर्वास योजनाएं और राहत पैकेज ज़रूर आते हैं, लेकिन उन पर अमल, सतत निगरानी और विज्ञान-आधारित नीति का अभाव बार-बार इसी बर्बादी का कारण बनता है।

मानव सृजन, शोषण और उपेक्षा की कहानियां आखिरकार कुदरत की चेतावनी बनकर लौटती हैं। जिस धरती पर बेतहाशा निर्माण, अधीर बदलाव, अदूरदर्शी पर्यटन और लोभ का तांडव चला, वह अंतिम समय पर असहाय संसार छोड़ जाती है। 2025 की बाढ़ों से नुकसान उठाने वाले अधिकतर गरीब, मजदूर, स्थानीय किसान और छोटे व्यवसायी हैं जिनका तंत्र, प्रशासन या मीडिया में कोई बड़ा वजूद नहीं।

महत्वकांक्षी विकास और सचेत शमन के संतुलन का अभाव कहीं न कहीं हिमालयी कस्बों को आपदा के मुहाने पर खड़ा कर रहा है। अब जरूरत है नीति और विज्ञान को समावेशी, वक्त के साथ और पारिस्थितिक आंकलन के हिसाब से बदलने की। आपदा प्रबंधन में स्थानीय संस्थाओं, युवाओं और महिला समूहों की भागीदारी। सतत निर्माण, पेड़ लगाने, जल–मलबा प्रबंधन, और जिम्मेदार पर्यटन गाइडलाइंस। पहाड़ी इलाकों की पारिस्थितिक संपदा को पहली प्राथमिकता।

बाढ़ और भूस्खलन आज सिर्फ मौसम या ‘दैवी’ ताकतों का नतीजा नहीं, बल्कि मनुष्य द्वारा की गई गलतियों का सामाजिक और सांस्कृतिक परिणाम बन चुके हैं। हिमालयी पर्यटनस्थलों, गाँवों और कस्बों को संवेदनशील नीति, वैज्ञानिक सोच और स्थानीय भागीदारी से ही बचाया जा सकता है।

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