ओपिनियन

युवा मानसिक स्वास्थ्य: दबाव और स्क्रीन के दौर में एक अधूरी मुस्कान

आंकड़ों की हकीकत: युवा चिंताओं की तस्वीर

भागते शहर, तेज़ होती उम्मीदें, स्क्रीन पर झूलती जिंदगियां आज भारत के युवाओं के लिए यह रोज़ का सच है। एक हालिया राष्ट्रीय सर्वेक्षण बताता है कि हर तीन में से दो छात्र चिंता, घबराहट और असंतोष का सामना कर रहे हैं। यह आंकड़ा कोई संख्या भर नहीं, बल्कि अलार्म बेल है क्या हमारे युवाओं की मानसिक सेहत वाकई सुरक्षित है? क्या हम उनकी अनकही बेचैनियों को देख पा रहे हैं या आधुनिकता और प्रतिस्पर्धा के शोर में खोते जा रहे हैं?

टॉप शहरों के छात्र हों या छोटी जगह के, उनकी ज़िंदगी बाहरी तौर पर कितनी भी चमकदार लगे, भीतर से वे तरह–तरह के दबावों में घिरे हुए हैं। कॉलेज में दाखिले की होड़, करियर का डर, “सबसे आगे” निकलने का जुनून इस अघोषित रेस ने दोस्ती, आत्मीयता, और खुद से सुलह की जगह छीन ली है। हर नतीजे, हर रैंक, हर नंबर के साथ उनकी कीमत तय होती जाती है। और ऐसे में वे डर जाते हैं—कहीं आगे न बढ़ पाए तो क्या रह जाएगा?

आज के युवाओं के जीवन में मोबाइल, लैपटॉप, टैबलेट हमेशा मौजूद हैं। ये तकनीकें ज्ञान और कनेक्शन तो देती हैं, लेकिन इनसे निकला “स्क्रीन टाइम” नई फिक्रें भी साथ लाता है। रात–रात भर सोशल मीडिया पर दोस्ती–दुश्मनी, लाइक्स–फॉलोअर्स की गिनती, वर्चुअल पहचान की तलाश इस ज़रूरत ने नींद, सेहत, और हर असलियत को प्रभावित किया है। कई बार ये फेसबुक–इंस्टा की डोर युवाओं को इतना खींच लेती है कि वे परिवार, किताबें, या असल संबंधों से दूर हो जाते हैं।

हमारी शिक्षा व्यवस्था अब भी नंबर, डिग्री, और प्रतियोगिता तक सीमित है। कक्षाओं में इमोशनल एजुकेशन, आत्मसम्मान, और मन की बातें नदारद हैं। शिक्षकों को भी परीक्षा, रिपोर्ट, और पाठ्यक्रम के बोझ से फुर्सत कहां? पर्याप्त काउंसलिंग, मानसिक स्वास्थ्य की चर्चा, या छात्रों की सुनवाई कौन करे? परिणामस्वरूप, छात्र अपने सवाल, अपनी घबराहटें छिपाने लगते हैं।

वर्तमान सर्वेक्षण में पाया गया कि देश के टियर-1 शहरों दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, पुणे के कॉलेज और स्कूलों में लगभग 60 से 70% छात्रों को मध्यम या उच्च स्तर की चिंता और तनाव महसूस होता है। खासतौर पर लड़कियाँ भावनात्मक दबाव, डिप्रेशन और कम आत्मसंतुष्टि की शिकार अधिक पाई गईं। दिल्ली के छात्र सबसे ज्यादा डिप्रेशन और भावनात्मक उलझन के शिकार मिले।​ विभिन्न कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और संस्थानों में आकंड़े अलग हो सकते हैं, किंतु एक समानता है लगभग प्रत्येक युवा डिजिटल दुनिया और पढ़ाई के दबाव से जूझ रहा है।

घर परिवार भी युवाओं की चिंता की अनदेखी करता है। माता–पिता चाहें तो बहुत कुछ समझ सकते हैं, पर अक्सर वे ही संभावनाओं के बोझ बढ़ा देते हैं चाहे बेहतरीन कॉलेज की उम्मीद हो या समाज रिश्तेदारों की तुलना। सीधी सरल बात है माता–पिता के सपने अक्सर अपने बच्चों की मानसिक मजबूती पर भारी पड़ते हैं।

जो छात्र बड़े शहरों या प्राइवेट स्कूल-कॉलेज में पढ़ते हैं, वे रैंकिंग की दौड़ और सोशल प्रेशर से ज्यादा जूझते हैं। तो वहीं, छोटे शहरों, सरकारी संस्थानों और महिलाओं को अलग तरह के दबाव झेलने पड़ते हैं सुरक्षा, समाज के ताने, या आर्थिक चिन्ताएं। हर किसी की कहानी, उसका संघर्ष अलग है पर, एक बात सबका सच है बहुत से युवा खुद को अकेला, असुरक्षित और भ्रमित महसूस करते हैं।

अब वक्त है कि स्कूल और कॉलेज सिर्फ किताबें नहीं, भावनाओं, संवाद, आत्मसम्मान की बातें भी सिखाएं। बच्चों को यह सिखाना कि अपनी मनोदशा बताना कमजोरी नहीं, मानवता है। हर शिक्षण संस्थान में अनुभवी काउंसलर, हेल्पलाइन और ‘खुली बातचीत’ के रास्ते हों, ताकि युवा अपनी चिंता और डर छिपाएं नहीं, बल्कि साझा कर सकें। अभिभावक, शिक्षक और युवा खुद यह सोचे कि स्क्रीन का संतुलन जरूरी है। ऑनलाइन दुनिया में खोना आसान है, बाहर निकलना और जीवन के दूसरे रंग समेटना भी ज़रूरी है।

माँ-पिता सुनना, समझना और स्वीकारना सीखें हर ग़लती को अपराध, हर परेशानी को असफलता मानना बंद करें। कभी तो किसी बच्चे से सवाल न करके सिर्फ़ एक बार पूछ लें “क्या वह खुश है?” लैंगिक या आर्थिक वजह से अधिक घबराए युवाओं के लिए अलग–अलग सहयोग, जागरूकता और सुरक्षा योजना बनाना ज़रूरी है।

ज़िम्मेदारी केवल छात्र, परिवार या शिक्षकों की नहीं सरकार, नीति–निर्माताओं और समाज को भी चाहिए कि मानसिक स्वास्थ्य का विषय प्राथमिकता पाये।जैसे शरीर की बीमारी छुपाने से बढ़ती है, वैसे ही मानसिक परेशानी भी संवाद, प्यार और सही इलाज माँगती है। नीति और बजट में मानसिक स्वास्थ्य बढ़ाने के लिए संसाधन, ट्रेनिंग और प्रचार को अहमियत मिले। सोशल मीडिया और इंफ्लुएन्सर्स भी मानसिक सेहत की चर्चा को लगातार आगे बढ़ाएँ, ताकि यह मुद्दा ‘शर्म का नहीं, जागरूकता का’ बन सके।

आज के युवाओं की सबसे बड़ी ज़रूरत है समझदारी भरा माहौल, खुला संवाद और सहायक हाथ।चाहे वो कॉलेज की लाइब्रेरी हो या वर्चुअल मीटिंग रूम, हमें साबित करना होगा कि चिंता, घबराहट और अकेलापन सिर्फ़ उनकी समस्या नहीं, हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है।

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