
पिछले कुछ वर्षों में भारत के शेयर बाज़ारों में एक नई जान आई है। हर दिन अखबारों में IPO यानी ‘इनीशियल पब्लिक ऑफरिंग’ की खबरें छाई रहती हैं कभी किसी नये स्टार्टअप का नाम तो कभी पुरानी कंपनी की दोबारा एंट्री। यकीनन, यह दौर भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक नई करवट है, जहां कंपनियां पूंजी जुटाने के लिए आम जनता के साथ साझेदार बनना चाहती हैं और लाखों निवेशक छोटी-छोटी बचत को सपनों में बदलने की नयी कोशिश में लगे हैं।
वैसे तो IPO भारत के लिए कोई नया शब्द नहीं, पर हाल के वर्षों में इसका विस्तार अभूतपूर्व रहा है। कहीं यह डिज़िटल इंडिया की नीति का परिणाम है, तो कहीं स्टार्टअप अब सिर्फ मेट्रो शहरों तक सीमित नहीं, गांव और कस्बों से भी IPO लाने लगे हैं। मोबाइल पर शेयर मार्केट ऐप्स और कागज़ी झंझटों से मुक्ति ने पहली बार लाखों युवाओं, महिलाओं और छोटे कारोबारीयों को भारत के कैपिटल मार्केट की दुनिया में प्रवेश करा दिया है। लोग पैसे बचाते ही नहीं, अब उसे बढ़ाने के नये-नये मौके ढूँढ रहे हैं।
IPO की दौड़ में सबसे दिलचस्प बदलाव है स्टार्टअप्स का बढ़ता दबदबा। कुछ साल पहले तक जिनकों लोग सिर्फ एक वेबसाइट या मोबाइल ऐप का नाम समझते थे, वे आज भारतीय अर्थव्यवस्था का चेहरा बन रहे हैं। किराना डिलीवरी ऐप्स, नये-नये फिनटेक स्टार्टअप्स, कैब सर्विस कंपनियां, ऑनलाइन एजुकेशन ब्रांड्स सब IPO के जरिए खुद को नए दर्जे पर स्थापित कर रहे हैं। जैसे ही कोई नया नाम पब्लिक इश्यु लाता है, निवेशकों में उत्साह का माहौल बन जाता है। लोग उम्मीद करते हैं कि शायद ये नया IPO पहले दिन ही कई गुना रिटर्न देगा, और इसी उम्मीद में कई बार अंधी भीड़ भी लग जाती है।
दरअसल, भारतीय निवेशक अब जोखिम लेने के लिए पहले से कहीं ज़्यादा तैयार हैं। गांव-कस्बे में रहने वाला युवा भी UPI, netbanking और शेयर ऐप्स के जरिए निवेश की दुनिया से जुड़ रहा है। सरकारी बैंकों में जमा रकम को छोड़, अब रिटर्न और ग्रोथ के बेहतर विकल्प खोजे जा रहे हैं। IPO में निवेश को लेकर एक किस्म की लॉटरी जैसी भावना भी बनी है जो मिलता है, वो किस्मतवाला; जो चूक गया, वो बाद में पछताता है।
लेकिन इस चमकदार तस्वीर में कुछ गहरी छायाएं भी उभर रही हैं। तेजी से बढ़ती IPO की संख्या और सब्सक्रिप्शन की भीड़ के बीच कई अहम सवाल खड़े होते हैं। हर कंपनी, जो IPO ला रही है, क्या उसकी बुनियाद उतनी ही मजबूत है? क्या स्टार्टअप्स के वैल्युएशन हकीकत के धरातल पर टिके हैं, या फिर कहीं यह एक बुलबुला बन रहा है, जो अचानक फट सकता है?
कुछ महीनों में हमने देखा है कि जब IPO बाजार में आते हैं, तो भारी सब्सक्रिप्शन के बाद लिस्टिंग के कुछ दिन, कुछ हफ्ते या महीनों में इन कंपनियों के शेयर मूल कीमत से नीचे भी गिर जाते हैं। बहुत से रिटेल निवेशक, खासकर वे जो सिर्फ सुनकर अप्लाई करते हैं, बाद में नुकसान में चले जाते हैं क्योंकि उन्होंने कंपनी की विवेचना उसका बिजनेस मॉडल और असली निर्यात क्षमता जांचने के बजाय सिर्फ चर्चा के आधार पर निवेश कर दिया। इसी बीच, कई बड़ी कंपनियों के प्रमोटर और शुरुआती निवेशक फायदा उठाकर अपना हिस्सा बेच निकल जाते हैं, और आम निवेशक बेचारे रह जाते हैं।
इतनी IPO सक्रियता के बीच नियामक इकाईयों जैसे कि सेबी की जिम्मेदारी भी बढ़ गई है। एक ओर तो सेबी पारदर्शिता, सही डेटा, और फुल डिस्क्लोजर के लिए नियम कड़े कर रही है। कंपनियों से हर एक्टिविटी, जोखिम, बीते सालों का लेखा, पूंजी उपयोग की रणनीति सार्वजनिक करवाना अनिवार्य हो गया है। पर, दूसरी ओर, इतनी सारी कंपनियों की फाइलें एक साथ आने से अनुमोदन प्रक्रिया धीमी हो जाती है, कागज़ी कार्रवाई बढ़ जाती है और कुछ स्ट्रिक्ट गाइडलाइंस के कारण छोटे और उभरते स्टार्टअप डरे-सहमे भी रहते हैं।
सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह निवेशकों की सुरक्षा सुनिश्चित करे पर साथ ही बाजार की रफ्तार में बाधा भी न बने। टाईट रेगुलेशन और रेडटेप से कमज़ोर कंपनियाँ तो छाँट दी जाएँगी, लेकिन अगर बहुत रुकावट होगी तो असल टैलेंट वाली कंपनियाँ हतोत्साहित हो सकती हैं। इसलिए नीति में लचीलापन और पारदर्शिता दोनों जरूरी हैं।
अंतरराष्ट्रीय माहौल भी इस IPO बूम को प्रभावित करता है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था की उथल-पुथल, वैश्विक ब्याज दरों का उतार-चढ़ाव, चीन जैसे बड़े बाज़ारों में गिरावट इन सबका असर भारतीय निवेशकों की भावना पर पड़ता है। विदेशी निवेशक अक्सर छोटी-सी अनिश्चितता पर अपने पैसे निकालने लगते हैं। लेकिन 2024-2025 में एक खास बात दिखी कि घरेलू निवेशकों का भरोसा अब भारत के मार्केट को स्थिरता दे रहा है। विशेषकर रिटेल इन्वेस्टर अपनी संख्या और जोश दोनों में नए रिकॉर्ड बना रहे हैं।
फिर भी सवाल है, क्या यह IPO बूम लंबा टिक सकता है? हकीकत यह है कि हर विकासशील अर्थव्यवस्था में ऐसे दौर आते हैं कभी बाजार में उतावलेपन की लहर होती है, तो कभी शांत पड़ाव। बाजार की दीर्घकालिक मजबूती के लिए जरूरी है कि कंपनियाँ सिर्फ निवेशकों को आकर्षित करने के लिए नहीं, बल्कि असल विकास के लिए पूंजी जुटाएँ। अगर स्टार्टअप्स या पुरानी कंपनियाँ IPO के पैसे का सदुपयोग करती हैं नई रिसर्च, रोज़गार, उत्पादन क्षमता और तकनीकी नवाचार में तो इसका समाज और अर्थव्यवस्था दोनों पर सकारात्मक असर होगा।
इस पूरी प्रक्रिया में निवेशकों की भूमिका बहुत अहम है। अब सिर्फ भीड़ के पीछे भागने का समय गया। आज की पीढ़ी को लंबे समय के फायदे, कंपनी के फंडामेंटल्स, बिजनेस प्लान, और मैनेजमेंट की ताकत जैसे पहलुओं की जानकारी अनिवार्य है। यह भी महत्वपूर्ण है कि आईपीओ की लिस्टिंग दिन की सफलता के बजाय, कंपनी के दीर्घकालिक प्रदर्शन पर ध्यान केंद्रित किया जाए।
नियामक संस्थाएं भी तकनीक का सहारा लेकर आवेदन प्रक्रिया को पार्दर्शी, शीघ्र और भरोसेमंद बना सकती हैं। भविष्य में हो सकता है कि एआई और डेटा एनालिटिक्स की मदद से IPO की गहन जांच और मूल्यांकन में और सटीकता आ जाए। निवेशकों के लिए शिक्षा और सतर्कता अभियान जरूरी हैं, ताकि वे किसी गलतफहमी या अफवाह में पैसे न लगा दें।
यह भी सच है कि IPO का यह उत्साह भारत की नई आर्थिक ऊर्जा, उद्यमिता और नवाचार का प्रमाण है। लाखों छोटे-बड़े निवेशक अब सिर्फ रिजकलार डिपॉजिट या गोल्ड में फंसे नहीं रहना चाहते; वे डिजिटल युग में अपने सपनों को नई उड़ान देना चाहते हैं। बाजार अब सिर्फ सूट-बूट वाले लोगों की दुनिया नहीं, यह आम आदमी की बचत और सपनों का मंच बन रही है।
फिर भी, समझदारी से निवेश करने, कंपनियों की असली क्षमता जांचने और नीति में संतुलन-साफगोई बनाए रखने की जिम्मेदारी हम सबकी है। IPO बूम तब तक ही ‘मौका’ है, जब तक इससे भारत के कारोबार, रोजगार, तकनीक और सामाजिक पूंजी को स्थायी लाभ मिलता है। अगर बस भीड़ की आँखें बंद हैं, तो वही बूम कल कड़वाहट में बदल सकता है।
IPO का मौजूदा जोश भारत के परिवर्तन और आत्मविश्वास की गवाही देता है। पर बुद्धिमान निवेशक, ईमानदार कंपनियां और जिम्मेदार नियामक ही यह तय करेंगे कि यह लहर टिकाऊ आर्थिक विकास का आधार बने, या बाजार के उतार-चढ़ाव में कहीं खो जाए।