बदलते मौसम और जलवायु परिवर्तन का भारत पर दुष्प्रभाव

जलवायु परिवर्तन अब कोई दूर की चिंता नहीं रह गया है, बल्कि यह वर्तमान समय का एक गंभीर संकट है, जो दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं और समुदायों को प्रभावित कर रहा है। भारत, जिसकी भौगोलिक विविधता और विशाल जनसंख्या है, इस संकट के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है। बढ़ते तापमान, अनियमित मानसून, हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना और समुद्र-स्तर में वृद्धि—इन सभी प्रभावों के लक्षण अब स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं और भविष्य में यह संकट और भी गंभीर हो सकता है।
जलवायु परिवर्तन क्या है?
जलवायु परिवर्तन का अर्थ है दीर्घकालिक तापमान और मौसम के पैटर्न में बदलाव। यह मुख्य रूप से मानव गतिविधियों जैसे जीवाश्म ईंधनों का दहन, वनों की कटाई और औद्योगिक प्रक्रियाओं के कारण होता है, जिससे वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों (जैसे CO₂, CH₄, N₂O) की मात्रा बढ़ जाती है और धरती का तापमान बढ़ता है।
संयुक्त राष्ट्र की अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन समिति (IPCC) के अनुसार, औद्योगिक क्रांति से अब तक वैश्विक औसत तापमान में लगभग 1.1°C की वृद्धि हो चुकी है। भारत में भी औसत तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है, जिससे गर्मी में लूं (हीटवेव) और अन्य मौसमीय असामान्यताएँ बढ़ी हैं।
भारत में जलवायु परिवर्तन की स्थिति
वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक (Global Climate Risk Index) के अनुसार, भारत जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित देशों में शामिल है। भारत की लंबी समुद्री तटरेखा, कृषि पर निर्भरता और घनी जनसंख्या इसे विशेष रूप से जोखिम में डालती है।
भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रमुख प्रभाव इस प्रकार हैं:
- अनियमित मानसून
- बढ़ता तापमान और हीटवेव
- हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना
- समुद्र स्तर में वृद्धि
- प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि (बाढ़, सूखा, चक्रवात)
- कृषि उत्पादकता में गिरावट
- स्वास्थ्य संकट और जल संकट
आइए इन प्रभावों को विस्तार से समझते हैं।
- अनियमित मानसून और कृषि पर असर
भारत की कृषि प्रणाली मानसून पर अत्यधिक निर्भर है। दक्षिण-पश्चिम मानसून से देश में लगभग 70% वर्षा होती है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून का पैटर्न अस्थिर हो गया है—कहीं वर्षा समय से पहले होती है, कहीं देर से, और कहीं बहुत कम या बहुत अधिक होती है।
महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे राज्य अक्सर सूखे का सामना करते हैं, जबकि बिहार और असम जैसे राज्य बाढ़ से प्रभावित होते हैं। इससे फसल चक्र बिगड़ता है, उत्पादन घटता है और किसानों की आय में गिरावट आती है।
- बढ़ता तापमान और हीटवेव
भारत में गर्मी की लहरें अधिक तीव्र और लगातार होती जा रही हैं। दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर जैसे शहरों में तापमान अक्सर 45°C से ऊपर चला जाता है। इससे स्वास्थ्य समस्याएं, जैसे हीट स्ट्रोक और मृत्यु, बढ़ती हैं और बिजली की खपत में भारी वृद्धि होती है।
गर्मी के कारण जल स्रोत तेजी से सूखते हैं, जिससे जल संकट और भी गंभीर हो जाता है।
- हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना और नदियों पर असर
हिमालय को “एशिया का जलस्तंभ” कहा जाता है क्योंकि यह कई बड़ी नदियों (गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र) का स्रोत है। लेकिन यहां के ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं। इससे अचानक बाढ़ और भूस्खलन जैसी घटनाएं होती हैं, जैसा कि हाल के वर्षों में उत्तराखंड और हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्यों में देखा जासकता है।
दीर्घकालिक प्रभावों में नदियों के जलस्तर में कमी होगी, जिससे पीने का पानी, सिंचाई और पनबिजली उत्पादन प्रभावित होंगे।
- समुद्र स्तर में वृद्धि और तटीय खतरे
भारत की समुद्री तटरेखा लगभग 7,500 किलोमीटर लंबी है, जिसमें कई बड़े शहर जैसे मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और कोच्चि स्थित हैं। समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण तटीय क्षरण, बाढ़ और नमक का जलभूत जल में प्रवेश जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं।
सुन्दरबन और लक्षद्वीप जैसे द्वीप समूह विशेष रूप से खतरे में हैं।
- प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि
- चक्रवात: बंगाल की खाड़ी में चक्रवात की तीव्रता बढ़ी है, जैसे अम्फान (2020) और यास (2021)।
- बाढ़: मुंबई, चेन्नई जैसे महानगरों में शहरी बाढ़ एक सामान्य समस्या बन गई है।
- भूस्खलन– पहाड़ी क्षेत्रों ने अनियमित निर्माण और गैर जरुरी कटान से पहाड़ लगातार कमजोर होते जा रहे हैं। पहाड़ों पर शहरीकरण के कारन दबाव बढ़ रहा है और जिससे भूस्खलन जैसी घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। विगत वर्ष उत्तराखंड के जोशीमठ शरण में पहाड़ खिसकने की खबरें सुर्ख़ियों में थी तो वही कमोवेश वैसी ही स्तिथि नैनीताल के सन्दर्भ में भी वैज्ञानिक रिसर्च कहती है। पहाड़ों पर बसाये गये शहर पहाड़ की क्षमता से कही अधिक ज्यादा बड़े हो गए हैं और आज भी अनयंत्रित निर्माण जारी है
- सूखा: विशेष रूप से मध्य और दक्षिण भारत में सूखे की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।
- स्वास्थ्य संकट और जल की कमी
बढ़ते तापमान और वायु प्रदूषण से श्वसन और हृदय रोग बढ़ रहे हैं। साथ ही, डेंगू, मलेरिया जैसे मच्छर जनित रोगों का दायरा भी बढ़ रहा है।
जल संकट एक गंभीर मुद्दा बन चुका है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की लगभग 60 करोड़ आबादी को गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ता है।
भारत की पहलें और प्रयास
भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कई कदम उठाए हैं:
- राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (NAPCC): इसमें आठ मिशन शामिल हैं जैसे सौर ऊर्जा, जल संरक्षण, कृषि, ऊर्जा दक्षता आदि।
- अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताएँ: पेरिस समझौते के तहत भारत ने 2030 तक GDP की उत्सर्जन तीव्रता को 33-35% तक घटाने और 50% ऊर्जा गैर-जीवाश्म स्रोतों से प्राप्त करने का लक्ष्य रखा है।
- हरित भारत मिशन: वनों की कटाई रोकने और हरित क्षेत्र बढ़ाने पर बल।
- नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश: भारत अब विश्व के शीर्ष पांच नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादक देशों में शामिल है।
हालांकि, इन नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन और वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता अब भी एक चुनौती बनी हुई है।
आगे की राह
भारत को अपने विकास लक्ष्यों को पर्यावरणीय स्थिरता के साथ संतुलित करना होगा। भविष्य के लिए कुछ जरूरी कदम:
- आपदा पूर्व चेतावनी प्रणाली को मजबूत करना
- जल संरक्षण और जलवायु अनुकूल कृषि को बढ़ावा देना
- हरित बुनियादी ढांचे में निवेश
- सतत शहरी योजना अपनाना
- जन-जागरूकता और सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देना
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए केवल सरकार नहीं, बल्कि नागरिकों, उद्योगों और संस्थाओं की भी संयुक्त भागीदारी आवश्यक है।
निष्कर्ष
जलवायु परिवर्तन आज की सबसे बड़ी वैश्विक चुनौतियों में से एक है और भारत पर इसका प्रभाव गहरा और व्यापक है। यदि हम समय रहते ठोस कदम नहीं उठाते, तो यह संकट हमारे भविष्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। लेकिन सही नीति, तकनीक, और जन-सहभागिता से भारत न केवल इस चुनौती से उबर सकता है, बल्कि पर्यावरणीय नेतृत्व की भूमिका भी निभा सकता है.