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आंकड़ों की दीवार के पीछे – भारत में अधूरी पोषण गाथा

सरकारी योजनाएँ: चावल-गेहूं से आगे कब बढ़ेंगे हम?

हर रोज़ जब सूरज उगता है, तब करोड़ों भारतीय एक साधारण सी उम्मीद के साथ दिन शुरू करते हैं आज का खाना मिल जाए। लेकिन हमारी यही थाली, जिसके चारों ओर पूरा परिवार इकट्ठा होता है, अक्सर कुछ अनकहा सवाल छोड़ जाती है क्या सिर्फ रोटी, चावल या आलू ही हमें वो ताकत और सेहत देता है, जिसकी हमें जरूरत है? क्या हमारी थाली में सचमुच सब कुछ है?

भारत में भोजन से जुड़ी कहावतें पुरानी हैं “अन्न दाता सुखी भव:” या “रोटी में भगवान बसते हैं।” लेकिन इन पंक्तियों के पीछे छुपा दर्द वह है, जिसे करोड़ों बच्चे, महिलाएँ और किसान हर दिन जीते हैं। पीढ़ियों से उगाया गया अनाज, रिकॉर्ड उत्पादन, सस्ती सरकारी योजनाएँ फिर भी, देश का एक बड़ा हिस्सा आज भी केवल पेट भरने तक ही सीमित है। सच्चा सवाल यह है कि क्या भारत केवल अनाज उत्पादन में चालाक, या वाकई पोषण के मायनों में भी संपन्न बन पा रहा है?

यह सच है कि भारत ने हरित क्रांति के बाद अनाज उत्पादन में बड़ी छलांग लगाई। आज हम गेहूं-चावल-दाल में देश के धनी देशों जैसी ताकतवर कतार में खड़े हैं। सरकारी गोदामों में अनाज भरा पड़ा है, वितरण केंद्र और राशन डीलर हर गाँव कस्बे में हैं। इसके बावजूद, गाँव से लेकर महानगर तक बीमार, कमजोर, कुपोषित बच्चे और महिला हर गली में देखे जा सकते हैं।

कोई बच्चा स्कूल जाते वक्त उसके झोले में साधारण सूखी रोटी रखता है, तो कहीं माँ अपने दूध पीते बच्चे के लिए दूध की ताकत नहीं जुटा पाती। यह फर्क सिर्फ गरीबी, भेदभाव या आलस्य का नहीं बल्कि भोजन और पोषण को लेकर हमारे सामाजिक ताने-बाने में गहरे समाए विसंगति का है।

अगर आप किसी गाँव की बुजुर्ग महिला से पूछें कि अच्छा खाना क्या होता है, तो वो कहेगी रोटी, थोड़ा दाल, कोई हरी सब्ज़ी, अगर किस्मत है तो दूध या छाछ और शायद एकाध मौसमी फल। पर रोजमर्रा की थाली की हकीकत देखें तो मोटा अनाज, सूखी दाल या आलू, और बहुत बार केवल नमक-मिर्च ही दिखेगा। पोषण का मायना शायद पेट भरने तक या कैलोरी गिनने तक रह गया है – सही विटामिन, प्रोटीन, मिनरल्स और विविधता आज भी सपनों जैसी हैं।

हर साल किए गए लाखों सर्वेक्षण यही बताते हैं कि भारत में खाद्य सुरक्षा का अर्थ “रोटी सिर्फ” है, न कि “रोटी-पोषण के संग”। ग्लोबल रिपोर्ट्स, नीति आयोग या किसी भी बड़े संस्थान के रिपोर्ट कार्ड पलटें हर तीसरा बच्चा या तो कम वजन का मिलेगा या उसकी लंबाई उम्र के हिसाब से कम होगी। हर दूसरी महिला रक्ताल्पता (एनीमिया) की शिकार है।

शहरों में, जहाँ कम आमदनी वाली बस्तियों में लोग काम पर जाने से लेकर लौटने तक पूरा दिन भागते रहते हैं, वहीं उनके हिस्से में पैकेट वाली नमकीन, सस्ती बिस्कुट, तेल में तली चीज़ें और शुगर वाली चाय आती है। पौष्टिकता वहाँ डिब्बों में बंद बोतलों पर सीमित रह जाती है। इसी तरह, गाँवों में सीज़न के मुताबिक सब्ज़ी, फल तो दूर आवक दिन पर टिकती है।

भारत में सिर्फ खेती या उत्पादन की समस्या नहीं यहाँ खाद्य वितरण, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक विषमता, स्वास्थ्य व्यवस्था, जलवायु परिवर्तन, और सबसे बड़ी बात जागरूकता की कमी भी जुड़ी हुई है। बहुत बार गरीब परिवार सस्ते वाले गेहूं-चावल पर निर्भर हो जाते हैं। दूध, अंडा, फल, मूंगफली या हरी सब्ज़ी को “शौक” या “त्योहार” मान लेते हैं। बच्चे के लिए बिस्कुट, चावल चटनी दे देना काफी समझते हैं, क्योंकि जानकारी या साधन दोनों की कमी है।

शिक्षा और सामाजिक व्यवहार भी इस समस्या को गहरा बनाता है। गांवों में अगर सब्ज़ी की फसल अच्छी भी हो जाए, तो पहले बाजार बिकती है, परिवार की थाली में कम ही आती है। मध्यमवर्गीय परिवार अक्सर “झटपट” भोजन, पैकेट-फूड, और रेडीमेड चिज़ों को ही प्राथमिकता देते हैं, जिससे बच्चों में मोटापा, डायबिटीज़, और अन्य स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं पोषण का संतुलन फिर भी छूट जाता है।

सरकार का राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एक्ट, मिड-डे मील, आंगनवाड़ी, किसानों के लिए अनुदान, गर्भवती महिलाओं व बच्चों के लिए पोषण मिशन, गरीबों को मुफ्त राशन इन सबसे करोड़ों लोगों के घर में अनाज तो पहुँचा है। लेकिन सवाल यह है, क्या इनसे थाली का पोषण भी सुधरा?

कई योजनाओं में सिर्फ गेंहू, चावल, शक्कर, नमक, दलहन मिलता है। दूध, अंडा, हरी सब्ज़ी, फल, नट्स जैसी चीज़ें दुर्लभ ही हैं। स्कूलों में बच्चों को मिलने वाला खाना पेट को ऊपर-ऊपर भरता है, पर शरीर की असली ज़रूरतें फिर भी अधूरी रह जाती हैं। इसके साथ-साथ गोदामों में अनाज की बर्बादी, गरीब-अमीर के बीच भेदभाव, वितरण तंत्र में भ्रष्टाचार या नौकरशाही की लाचारी जैसे कारक भी बड़ी समस्या हैं। कभी-कभी मदद सबसे ज़रूरतमंद तक नहीं पहुंचती।

जलवायु परिवर्तन की वजह से कभी सूखा, कभी अधिक बारिश, कभी बेमौसम गर्मी-ठंडक किसानों पर सीधा असर डालती है। जब फसल नष्ट होती है, तो दाल-सब्सी-दूध सब तक पहुँचते-पहुँचते महंगे हो जाते हैं।शहरों में लोगों की बदलती जीवनशैली, हर चीज़ का इंस्टेंट होना, और जंक फूड का बढ़ता चलन बच्चों की आदतों को बिगाड़ता है। माता-पिता खुद जल्दी-जल्दी में बाजारू खाना खाते हैं, तो बच्चों को पोषक भोजन कहां से मिलेगा?

अक्सर देखा गया है कि ग्रामीण या गरीब परिवारों में महिला खुद कम खाकर, अपने हिस्से का खाना बच्चों या पति को दे देती है। इस त्याग या परंपरा के नाम पर महिला खुद एनीमिया, हड्डियों या अन्य बीमारियों से जूझती है। किशोरियों में मासिक चक्र, शादी, प्रेग्नेंसी जैसी अवस्थाएँ उनके पोषण को और जटिल कर देती हैं। बच्चे, जिनके शरीर और दिमाग की रफ्तार इस समय सबसे तेज़ है, वही सबसे ज़्यादा जोखिम के शिकार हैं।

अब वक्त आ गया है कि भोजन को समर्थन, तकनीकी या सरकारी नीति तक सीमित न रखें बल्कि उसे असल ज़िंदगी में खींच लाएँ। हमें “सिर्फ अनाज नहीं, बल्कि थाली में रंग, स्वाद और विविधता” लानी होगी। बच्चों और महिलाओं को दूध, दाल, पीले-हरे फल, ताज़ी सब्ज़ी, अंडा, मूँगफली, और सीज़नल फल अनिवार्य मिलें।

हर सरकारी योजना को हर गाँव तक सिर्फ राशन देने के बाद भी, आंगनवाड़ी और स्कूलों में बच्चों के पोषण की मॉनिटरिंग बढ़ाए जाए। हेल्थ वर्कर्स, शिक्षक, ग्राम सभा सब मिलकर माता-पिता और युवाओं को पोषण के बुनियादी संदेश दें। कृषि नीति में छोटी फसल, गैर पारंपरिक पौष्टिक फसल, और स्थानीय सुपरफूड्स (जौ, बाजरा, मक्का, मोटे अनाज, अमरूद, सेम, चुन्ना आदि) को बढ़ावा दें। सब्ज़ी बग़ीचा, किचन गार्डन, समुदाय स्तर पर फल-सब्ज़ी वितरण, घर-घर पौष्टिकता रसोई तक ले आएँ।

“उपजाऊ खेत, भरी गोदामें, लेकिन थाली में पौष्टिक आहार नहीं” यह विरोधाभास खत्म करना आसान नहीं, पर नामुमकिन भी नहीं।
जहां समाज में गरीबी, आर्थिक असमानता, मातृत्व-शिशु शिक्षा व स्वास्थ्य का अभाव होगा, वहाँ “पोषण” एक सपना ही रहेगा।

हर नागरिक, किसान, महिला, अभिभावक अपने-अपने स्तर पर जागरूक हो। बच्चों के दोपहर के खाने में हरी सब्ज़ी और फल जोड़ें, महिलाओं की सेहत को प्राथमिकता दें, रिक्शा वाले से लेकर बिल्डर तक, हर कोई अपने बच्चों को एक स्वस्थ थाली देने की बजाय ब्रांडेड पैकेज फूड देने पर विचार करे।

तकनीक और विज्ञान की मदद से गांव, किसानों और महिलाओं तक जानकारी पहुंचानी होगी। मोबाइल ऐप, टीवी अभियान, गाँव की चौपाल, स्कूल का भोजन सब जगह “पोषण” का मतलब और ज़रूरत समझाई जाए।परंपरा से सीख लेकर आज के स्मार्ट भारत में ‘किचन गार्डन’, ‘स्थानिय अनाज’, ‘सीज़नल फल-सब्ज़ी’, ‘घरों में दूध का उपयोग’ आदि पुराने आदर्शों को नए रंग में ढालकर अपनाना होगा।

सच्ची खाद्य सुरक्षा का अर्थ सिर्फ पशु पेट भरने जितना खाना नहीं, बल्कि पूरे शरीर–दिमाग–जिंदगी के लिए पर्याप्त, संतुलित और विविध आहार है। हर थाली में सिर्फ कैलोरी नहीं, पोषक तत्व, रंग-रूप, स्वाद और ऊर्जा हो तभी भारत सचमुच “सुरक्षित” होगा। अगर देश के हर बच्चे के चेहरे पर मुस्कान लानी है, हर माँ को सशक्त बनाना है और नई पीढ़ी को स्वस्थ भविष्य देना है, तो हमें सिर्फ उत्पादन या वितरण की नहीं, थाली की असली पौष्टिकता की सोच लेनी होगी।

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