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युद्ध, व्यापार शुल्क और शेयर बाजार की हलचल – निवेशकों के लिए नई चुनौती

टैरिफ की जंग: कंपनियों की कमाई पर दोहरी मार

जब भी कोई शेयर बाजार की चर्चा करता है, तो सबसे पहले हमारे जेहन में रंग-बिरंगे चार्ट, ऊपर-नीचे भागती रेखाएँ और न्यूज़ चैनलों की ब्रेकिंग हेडलाइंस घूमने लगती हैं। लेकिन इन आकड़ों और ग्राफ्स के पीछे छुपी असली कहानी अक्सर नजरअंदाज रह जाती है। यह कहानी सिर्फ कंपनियों के मुनाफे-घाटे की नहीं, बल्कि दुनिया के हर कोने में होने वाले बदलाव, छोटे-बड़े फैसलों, युद्ध, शांति, वैश्विक व्यापार और आम आदमी की उम्मीदों की होती है।

2025 का साल भारतीय निवेशकों के लिए किसी झूले की सवारी से कम नहीं रहा। कभी रूस-यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग की खबरें, कभी पश्चिम एशिया में बढ़ता तनाव, तो कभी अमेरिका और चीन के बीच व्यापार शुल्कों को लेकर तकरार। इन सबने बाजार की चाल को झकझोर कर रख दिया। ऐसे माहौल में हर निवेशक के मन में यही सवाल है कि आगे क्या होगा? क्या बाजार फिर से नई ऊँचाइयाँ छुएगा या अभी और गिरावट बाकी है?

दुनिया में कहीं भी जब युद्ध छिड़ता है, उसकी गूंज सिर्फ सीमाओं तक सीमित नहीं रहती। वह सीधा शेयर बाजार की नब्ज़ पर असर डालती है। रूस-यूक्रेन संघर्ष ने वैश्विक सप्लाई चेन को झटका दिया, जिससे तेल, गैस और अनाज जैसी बुनियादी चीजों की कीमतें आसमान छूने लगीं। भारत जैसे देश, जो कच्चे तेल का बड़ा हिस्सा आयात करते हैं, उनके लिए यह स्थिति और भी चुनौतीपूर्ण रही। जैसे ही तेल महंगा हुआ, देश में महंगाई की लहर दौड़ गई, कंपनियों के खर्च बढ़ गए और मुनाफा घट गया। घबराए निवेशकों ने अपने शेयर बेचने शुरू कर दिए, जिससे बाजार में गिरावट और तेज हो गई।

युद्ध का असर सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि मानसिक भी होता है। बाजार में डर और बेचैनी का माहौल बन जाता है। लोग जोखिम से बचने के लिए अपने पैसे को सुरक्षित निवेश, जैसे सोना, सरकारी बॉन्ड या फिक्स्ड डिपॉजिट में लगाने लगते हैं। इससे शेयरों में बिकवाली और बढ़ जाती है और बाजार और नीचे चला जाता है। लेकिन जैसे ही हालात में थोड़ी स्थिरता आती है या समाधान की कोई उम्मीद दिखती है, निवेशकों का भरोसा लौटता है और बाजार धीरे-धीरे संभलने लगता है।

इतिहास को देखें तो हर बड़े युद्ध या तनाव के समय बाजार में गिरावट आती है, लेकिन हालात सुधरते ही बाजार में रिकवरी भी देखने को मिलती है। 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान भी ऐसा ही हुआ था। फर्क सिर्फ इतना है कि आज की दुनिया पहले से कहीं ज्यादा जुड़ी हुई है। एक देश में हलचल हो, तो उसका असर मिनटों में पूरी दुनिया के बाजारों में दिख जाता है।

अगर सेक्टर की बात करें, तो युद्ध के समय सबसे ज्यादा असर ऊर्जा और तेल कंपनियों पर पड़ता है। जैसे ही तेल की कीमतें बढ़ती हैं, ट्रांसपोर्ट, ऑटो, केमिकल्स जैसी इंडस्ट्रीज पर सीधा असर पड़ता है। रूस, यूक्रेन जैसे देशों से कच्चा माल न मिलने पर स्टील, एल्यूमिनियम, तांबा जैसी धातुओं की कीमतें भी बढ़ जाती हैं। सरकारें रक्षा बजट बढ़ाती हैं, जिससे रक्षा क्षेत्र की कंपनियों के शेयरों में अचानक तेजी आ जाती है। वहीं, अनाज और खाद्य तेल जैसी चीजों की सप्लाई बाधित होने पर इनकी कीमतें भी बढ़ती हैं, जिससे संबंधित कंपनियों के शेयरों में हलचल रहती है।

2025 में अमेरिका, चीन, यूरोप और कई अन्य देशों के बीच व्यापार शुल्कों को लेकर तनातनी और तेज हो गई। अमेरिका ने चीनी और यूरोपीय उत्पादों पर भारी टैरिफ लगा दिया, तो जवाब में उन देशों ने भी अमेरिकी सामान पर शुल्क बढ़ा दिए। इससे कंपनियों की लागत में इजाफा हुआ और मुनाफा घट गया।

टैरिफ बढ़ने से कंपनियों की आमदनी पर सीधा असर पड़ता है। उपभोक्ताओं के लिए चीजें महंगी हो जाती हैं, जिससे उनकी खरीदारी घट जाती है। कई कंपनियों ने उत्पादन घटाने या लागत कम करने के लिए कर्मचारियों की छंटनी भी शुरू कर दी है। इसका असर आर्थिक विकास की गति पर भी पड़ता है।

व्यापार युद्ध और टैरिफ के चलते कंपनियों को अपनी सप्लाई चेन में बदलाव करने पड़े। कच्चा माल महंगा हो गया, तैयार माल की बिक्री घटी, और कंपनियों के मुनाफे पर दोहरी मार पड़ी एक तरफ लागत बढ़ी, दूसरी तरफ बिक्री घटी। ऐसे माहौल में निवेशक उन कंपनियों से दूरी बनाने लगे, जिनका कारोबार अंतरराष्ट्रीय बाजार पर निर्भर है। वे घरेलू कंपनियों या सुरक्षित निवेश साधनों की ओर रुख करने लगे। इससे बाजार में असंतुलन आया और शेयरों की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिला।

भारतीय शेयर बाजार अब पूरी तरह से वैश्विक घटनाओं के असर में है। साल की शुरुआत में विदेशी निवेशकों ने भारतीय बाजार से बड़ी मात्रा में शेयर बेच दिए जनवरी से मार्च 2025 के बीच करीब 1 लाख करोड़ रुपये की बिकवाली हुई। उस वक्त डॉलर मजबूत था, अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ रही थीं और वैश्विक माहौल अनिश्चित था, जिससे विदेशी निवेशक सतर्क हो गए थे।

मगर अप्रैल-मई में तस्वीर बदल गई। महंगाई कुछ कम होने लगी, अमेरिका में ब्याज दरें स्थिर रहीं और भारतीय अर्थव्यवस्था में मजबूती दिखी। नतीजतन, विदेशी निवेशकों ने फिर से भारतीय बाजार में भरोसा दिखाया और मई में लगभग 20,000 करोड़ रुपये का निवेश किया। इससे बाजार में स्थिरता लौटी और सेंसेक्स-निफ्टी ने फिर से रफ्तार पकड़ी।

एक और बड़ा बदलाव यह है कि अब घरेलू निवेशक (DIIs) भी बाजार में अहम भूमिका निभा रहे हैं। 2025 की पहली छमाही में उन्होंने 3.5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का निवेश किया। जब विदेशी निवेशक बिकवाली करते हैं, तब घरेलू निवेशक बाजार को संभालते हैं। इससे बाजार में गिरावट की रफ्तार कम होती है और निवेशकों का भरोसा बना रहता है।

कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से भारत में महंगाई बढ़ती है। डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होने से आयात महंगा हो जाता है, जिससे ऑटो, केमिकल्स, फार्मा जैसी इंडस्ट्रीज पर असर पड़ता है। सरकार की नीतियाँ, बजट, ब्याज दरों में बदलाव और घरेलू चुनाव भी बाजार को प्रभावित करते हैं।

इन दिनों शेयर बाजार का मिजाज बेहद संवेदनशील हो गया है। एक छोटी-सी खबर भी बाजार में बड़ी हलचल ला सकती है। विदेशी निवेशकों की बिकवाली, कंपनियों के कमजोर तिमाही नतीजे और वैश्विक अनिश्चितता ने बाजार को दबाव में रखा है। कई बार बाजार में तेज गिरावट आती है, तो कभी अचानक तेजी भी दिखती है।

छोटे निवेशक, जो आमतौर पर मिड और स्मॉल कैप शेयरों में निवेश करते हैं, वे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। कई लोगों ने घबराहट में अपने शेयर बेच दिए, जिससे उन्हें नुकसान झेलना पड़ा। वहीं, कुछ अनुभवी निवेशकों ने इस गिरावट को खरीदारी का मौका समझा और मजबूत कंपनियों के शेयरों में निवेश बढ़ाया।

अगर अलग-अलग सेक्टर की बात करें, तो आईटी और सॉफ्टवेयर कंपनियाँ अमेरिका-यूरोप की मंदी और डॉलर में कमजोरी की वजह से दबाव में हैं। ऑटोमोबाइल सेक्टर को कच्चे माल की कीमतों में बढ़ोतरी और मांग में कमी से चुनौती मिल रही है। बैंकिंग और वित्त सेक्टर में ब्याज दरों में बदलाव और विदेशी निवेशकों की बिकवाली के कारण अस्थिरता है। ऊर्जा और धातु कंपनियों के लिए तेल, गैस, स्टील, तांबा जैसी वस्तुओं की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव चिंता का कारण है। फार्मा और हेल्थकेयर सेक्टर वैश्विक मांग में कमी और प्रतिस्पर्धा के चलते दबाव महसूस कर रहे हैं।

इन सभी वजहों से बाजार में रोज़ाना उतार-चढ़ाव बना रहता है। कभी सेंसेक्स 700 अंक गिर जाता है, तो कभी अगले ही दिन 500 अंक चढ़ जाता है। ऐसे माहौल में निवेशकों के लिए जरूरी है कि वे घबराएं नहीं, बल्कि बाजार की चाल को समझें, धैर्य रखें और सोच-समझकर निवेश करें।

शेयर बाजार में हमेशा उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इतिहास गवाह है कि हर बड़ी गिरावट के बाद बाजार फिर से संभलता है। इसलिए, घबराने की बजाय लंबी अवधि की सोच रखना ही समझदारी है। अपने निवेश को अलग-अलग सेक्टर और साधनों में बांटना चाहिए। सिर्फ एक ही सेक्टर या कंपनी पर निर्भर रहना जोखिम भरा हो सकता है। सोना, बॉन्ड, म्यूचुअल फंड जैसे विकल्पों को भी अपने पोर्टफोलियो में जगह दें।

हर निवेश के साथ जोखिम जुड़ा होता है, इसलिए निवेश करने से पहले कंपनी और सेक्टर की हालत को अच्छी तरह समझ लें। बाजार की खबरों पर नजर जरूर रखें, लेकिन भावनाओं में बहकर कोई बड़ा फैसला न लें। अगर आप खुद निर्णय लेने में असहज महसूस करते हैं, तो किसी वित्तीय सलाहकार से मदद लें। बाजार की चाल को समझना और सोच-समझकर निवेश करना ही सही रास्ता है।

शेयर बाजार में वही लोग सफल होते हैं, जो धैर्य और अनुशासन के साथ काम करते हैं। छोटी गिरावटों से डरकर निवेश बंद न करें, बल्कि मजबूत कंपनियों में धीरे-धीरे निवेश बढ़ाते रहें।

युद्ध, व्यापार शुल्क और वैश्विक तनाव ने शेयर बाजारों को अस्थिर जरूर बनाया है, लेकिन यह कोई नई बात नहीं है। बाजार हमेशा उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरता है। समझदारी इसी में है कि हम घबराने की बजाय धैर्य रखें, अपने निवेश को विविध बनाएं और बाजार की चाल को समझते हुए आगे बढ़ें।

हर गिरावट के साथ नए मौके भी आते हैं। जो निवेशक समझदारी, धैर्य और अनुशासन के साथ आगे बढ़ते हैं, वे इस अस्थिरता में भी मुनाफा कमा सकते हैं। सही जानकारी, विवेक और रणनीति ही इस दौर में आपकी सबसे बड़ी ताकत होगी।

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