युवाओं में डिप्रेशन और एंग्जायटी: एक बदलती पीढ़ी की बेचैनी
शारीरिक से ज्यादा गहरी होती है मानसिक थकान

हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहाँ आँखों के सामने सब कुछ तेजी से बदल रहा है। सुविधा, तकनीक और संसाधनों का संसार और पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा उपलब्ध है। लेकिन सवाल ये है कि इस तेज़ रोशनी में जो सबसे अनमोल है। इंसान का “मन” क्या वो सुरक्षित है?
खासकर बात करें हमारे युवाओं की, तो तस्वीर उतनी उजली नहीं दिखती जितनी बाहर से लगती है। चमकदार सोशल मीडिया प्रोफाइल, अच्छे कॉलेज, बड़ी नौकरियाँ, ब्रांडेड कपड़े, ग्रैजुएशन की तस्वीरों के पीछे बहुत सारे युवा “अंदर से टूटे” हुए हैं। ठीक वही युवा जो बाहर से हँसते हैं, लेकिन भीतर कुछ कह नहीं पा रहे।
आज का युवा वर्ग जो देश का भविष्य है मानसिक रूप से बहुत कुछ झेल रहा है। दबाव, चिंता, अकेलापन और अवसाद धीरे-धीरे एक सन्नाटा बनकर उसकी ज़िंदगी के भीतर उतरते जा रहे हैं। ये मानसिक स्थिति बिल्कुल वैसी है जैसे कोई ज़मीन ऊपर से तो उर्वर दिखे, लेकिन भीतर पूरी तरह बंजर हो चुकी हो। और बात तब ज़्यादा गंभीर हो जाती है जब ये सब कुछ “नज़र न आने वाली” बीमारी बन जाती है।
कुछ साल पहले तक मानसिक स्वास्थ्य की बातें खुलकर नहीं होती थीं, पर अब हालात ऐसे हो गए हैं कि हम चुप नहीं रह सकते। कॉलेजों, दफ्तरों और समाज में कई युवा मानसिक रूप से इतने थक चुके हैं कि उन्हें रोज़ सुबह बिस्तर से उठना तक एक “लड़ाई” लगती है।
डिप्रेशन और एंग्जायटी यानी अवसाद और चिंता आज के युवाओं के लिए आम हो चला है। लेकिन यह “आम होने” का अर्थ “सामान्यता” नहीं है। यह एक नई पीढ़ी के भीतर पनपती हुई चुपचाप पीड़ा है, जिसकी गूंज बाहर तक नहीं पहुँचती। कई बार यह इतनी गहरी होती है कि व्यक्ति खुद भी उसे समझ नहीं पाता।
इन मानसिक समस्याओं का कोई एक कारण नहीं है। यह एक पूरी प्रक्रिया का नतीजा है जो हमारे समय और समाज ने तैयार की है।आज युवा ऐसे वातावरण में पल रहे हैं जहाँ उनसे हर समय तुलना होती है रिश्तेदारों के बच्चों से, ऑनलाइन लोगों से, अपने दोस्तों से और यहाँ तक कि खुद के ही किसी बेहतर वर्शन से। चाहे स्कूल के परिणाम हों या सोशल मीडिया पर “फॉलोअर्स”, हर जगह अनजानी दौड़ लगी हुई है, और यह दौड़ थोड़ी देर बाद थका देती है।
महत्त्वाकांक्षाएँ होना गलत नहीं, लेकिन जब ये महत्वाकांक्षा हमारे आत्मसम्मान को निगलने लगे तो सोचने की ज़रूरत है। जब परिवार केवल परिणामों पर ध्यान देता है, और प्रोफेशनल दुनिया केवल प्रदर्शन पर, तो युवा पीढ़ी के पास यह महसूस करने का वक़्त ही नहीं बचता कि वो क्या महसूस कर रहे हैं।
इसके साथ ही सोशल मीडिया ने भी एक भ्रामक संसार खड़ा कर दिया है। वहाँ हर कोई परफेक्ट दिखाई देता है खूबसूरत चेहरा, एडवांस करियर, खुशहाल रिश्ते, हकीकत के पीछे की तस्वीर अक्सर अधूरी ही रहती है। इस आभासी दुनिया में खुद की तुलना करना, असल जीवन में असंतोष को जन्म देता है।
कुछ युवा भावनात्मक रूप से अकेले पड़ जाते हैं। उनके पास इंटरनेट है, मगर इंसान नहीं। दोस्त हैं, मगर भरोसेमंद नहीं। बात करने की सुविधा है, मगर सुनने वाला कोई नहीं। यही अकेलापन कई बार सबसे बड़ी तकलीफ बन जाता है।
शरीर की थकावट को दवा, आराम और नींद से दूर किया जा सकता है। मगर मन की थकावट रंग से नहीं, शब्दों से नहीं, बल्कि समझ और सहारे से ठीक होती है। जब कोई युवा दिन भर कॉलेज या ऑफिस के बाद खाली कमरे में बैठा अपनी आँखों से सोचना बंद कर देता है तो हम समझ नहीं पाते कि उस खालीपन का क्या करें।
युवा दिनभर बाहर खुद को मज़बूत दिखाते हैं, और रात को अपने कमरे में चुपचाप टूट जाते हैं। बार-बार मोबाइल चेक करते हैं, लेकिन किसी से बात नहीं करते। वो स्माइली इमोजी भेजते हैं, लेकिन उनका मन रोता है। और किसी मोड़ पर, जब सब ज़्यादा हो जाता है, तो वे हार मान लेते हैं।
परिवार को समझना होगा कि बच्चों की मानसिक स्थिति को “नखरा” कह देना, उन्हें पूरी तरह अजनबी बना देता है। शिक्षक और प्रोफेसर यदि नंबर की बजाय मन की थकान पर ध्यान देने लगें, तो शायद किसी छात्र के जीवन में नई उम्मीद जगाई जा सकती है। और दोस्तों को भी, किसी पार्टी या इंस्टाग्राम पोस्ट जैसे मौकों से कहीं ज्यादा, उनके उदास दोस्त की “कैसी हो?” जैसी आवाज की ज़रूरत होती है।
युवाओं को सहज महसूस कराना जरूरी है कि इलाज लेना कमजोर होना नहीं है, बल्कि यह उनकी पहली जीत होती है। मनोवैज्ञानिकों और काउंसलरों की मदद लेना उतना ही सामान्य होना चाहिए, जितना बुखार में दवा लेना। सबसे बड़ा संकट तभी सिर उठाता है जब हम चुप हो जाते हैं।
सरकार और संस्थाओं को भी जागरुकता फैलाने की ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए। हेल्पलाइन नंबर केवल कागजों में न हों, बल्कि कॉलेजों, मेट्रो ट्रेनों, सोशल मीडिया और ऑफिस बिल्डिंग तक उनकी गूंज पहुँचनी चाहिए। कॉलेजों में नियमित मानसिक स्वास्थ्य मूल्यांकन, कार्यस्थलों पर थेरेपी सत्र, और स्वास्थ्य बीमा में मानसिक स्वास्थ्य को शामिल करना अब ज़रूरी हो गया है।
और अगर आप खुद इस दौर से गुजर रहे हैं, तो यकीन रखिए आप दोबारा धीरे–धीरे ठीक हो सकते हैं। दुनिया की हर उलझन का हल होता है, बस उसे कहने का रास्ता चाहिए। मदद मांगना आपकी हार नहीं, आपकी सबसे प्यारी कोशिश है।हमने आधुनिकता, प्रगति और तकनीक में बहुत कुछ हासिल कर लिया है। लेकिन अगर हमने अपने बच्चों, दोस्तों और खुद के मन की आवाज़ों को नहीं सुना, तो शायद हमसे ज़्यादा कुछ और खोने वाला नहीं होगा।