फ्रांस में लोकतंत्र की थकान: एक वर्ष में तीसरे प्रधानमंत्री का इस्तीफा और बढ़ती अस्थिरता
जनता का आंदोलन, तेजी से बदलती सत्ता और फ्रांस की लोकतांत्रिक परीक्षा
फ्रांस में बार-बार बदलती प्रधानमंत्री की कुर्सी, खासकर फ्रांस्वा बायरू के हालिया इस्तीफे के बाद, देश के लोकतंत्र में गहरी थकान और असंतोष की झलक दिखती है। यह घटना केवल एक व्यक्ति या पार्टी का संकट नहीं, बल्कि पूरे यूरोपीय ढांचे, आम नागरिकों की उम्मीदों, और आधुनिक नेतृत्व की चुनौतियों की कहानी बयां करती है।
फ्रांस्वा बायरू का कार्यकाल मुश्किलों से भरा रहा बजट कटौती के फैसले, संसद में समर्थन का अभाव और जनता में नाराजगी आखिरकार सरकार गिरने तक पहुंची। बार-बार अविश्वास प्रस्ताव और राजनैतिक बयानबाज़ी ने लोकतंत्र की क्षमता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। लोग अब नेतृत्व से केवल भरोसा नहीं, नई पारदर्शिता, संवाद व निर्णायक नीति की चाहत रखते हैं।
देश में जनता का गुस्सा प्रदर्शन, बहस और चर्चा तक सीमित नहीं है सड़कों पर युवाओं की भीड़, बेरोजगारी, जीवन-यापन की कीमतें, और व्यवस्था से असंतोष खुलकर सामने आ गया है। विपक्ष और नागरिक समाज भी चुनाव या व्यवस्था में आमूल सुधार की मांग कर रहे हैं। कई लोग मानते हैं कि बार-बार सरकार बदलना स्वस्थ लोकतांत्रिक संकेत है, लेकिन इतनी तेजी से बदलाव तात्कालिक समाधान नहीं, बल्कि गहरी अस्थिरता का सूचक बन रहा है।
फ्रांस की राजनैतिक हलचल का असर सिर्फ पेरिस या फ्रेंच नागरिकों तक सीमित नहीं पूरे यूरोप के आर्थिक, सामाजिक और रणनीतिक माहौल पर इसका प्रभाव पड़ सकता है। जब यूरोपीय संघ की बड़ी कड़ी ही कमजोर हो, तब बाकी देश भी निवेश, बाजार व नीतियों को लेकर घबराते हैं। जर्मनी, इटली जैसे देशों के हालात भी इसी तरह के राजनीतिक उतार-चढ़ाव का शिकार हैं।
राष्ट्रपति मैक्रों अब शायद नए चेहरे की तलाश में हैं जो संसद, बाजार, यूरोप और जनता, सभी को संतुष्ट कर सके। यह आसान नहीं होगा क्योंकि अब वोटर, सांसद और नागरिक तीनों बदलाव मांग रहे हैं, और असंतोष चरम पर है। राजनीति के इस दौर में संवाद, विश्वास और ज़मीनी सवालों पर सुनवाई ही आगे का रास्ता है।
फ्रांस में एक साल में तीन प्रधानमंत्री बदलना यूरोपीय राजनीति का आइना है यह इस क्षेत्र की गहराती समस्याओं, संस्थागत जटिलताओं और नागरिक उम्मीदों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया ज़रूर विवेक और सुधार का सबसे बड़ा साधन है, लेकिन जब निर्णय टिकाऊ न हों, तो हताशा स्वाभाविक है।
फ्रांस की मौजूदा स्थिति सभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए सबक है यदि समाधान संवाद, जवाबदेही और व्यवहारिक नीति में न ढूंढे जाएं, तो बार-बार सरकार बदलने से असंतोष ही बढ़ेगा। नेतृत्व के लिए अब नागरिकों का भरोसा जीतना, और गंभीर संतुलन कायम रखना सबसे बड़ी चुनौती है।