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ई-स्पोर्ट्स: कठिन अभ्यास, लम्बा स्क्रीन टाइम और ग्राइंडिंग कल्चर

डिजिटल काल की नई पहचान: ई-स्पोर्ट्स

कुछ दशक पहले तक खेलों का मतलब था मैदान, धूल-मिट्टी, चीख-पुकार, जज़्बा और पसीना। आज, वही जज़्बा हज़ारों मील दूर बैठकर, एसी कमरों में, हाई-टेक मशीनों के सामने, चुपचाप चल रही एक लड़ाई में बदल चुका है। ई-स्पोर्ट्स की दुनिया! यह दुनिया तेज़ी से बढ़ रही है, रातों-रात तारे चमकने लगे हैं। पैसा, सम्मानीयता, लाखों की फैन-फॉलोइंग… लेकिन इस ग्लैमर के पर्दे के पीछे जो सच्चाई छुपी है, वह उतनी ही कड़वी और गहरी है। थकावट, टूटन, अकेलापन और शारीरिक-मानसिक कीमत।

व्यापक इंटरनेट, स्मार्टफोन और हाई-एंड कंप्यूटरों के युग में, ई-स्पोर्ट्स का नाम आज हर युवा की जुबान पर है। बच्चे हों या युवा, गांव हो या शहर, सब किसी न किसी ऑनलाइन गेम में माहिर बनने, अपने पसंदीदा गेमर का फैन बनने या खुद ऑनलाइन मुकाबलों में हिस्सा लेने के सपने देखने लगे हैं।

इस ख्वाब के पीछे छिपा है कड़ा अनुशासन, असाधारण मेहनत, तमाम रातें और दिन, तेज़ कॉम्पटीशन, और लगातार बदलती टेक्नॉलजी के साथ खुद को अपडेट रखने का दबाव। एक प्रोफेशनल ई-स्पोर्ट्स खिलाड़ी का जीवन बाहर से जितना रंगीन दिखता है, उतना ही अंदर से थका देने वाला है।

आमतौर पर लोग मानते हैं कि गेमिंग मज़े का काम है। पर हकीकत ये है कि प्रोफेशनल गेमर का एक दिन आठ से बारह घंटे की धुन में निकल जाता है। घंटों बैठना, तेजी से हाथ चलाना, हर मुकाबले में खुद को साबित करना – सारी कड़ी मेहनत एक चूक पर पानी फेर सकती है।

बहुत साल पहले की बात है, जब लोग कहते थे – “खेलोगे कूदोगे, बनोगे खराब!” अब जमाना बदल गया है। अब लोग कहते हैं “गेम खेलो, फेम पाओ!” पर फेम के बिना आवाज़ दबाव, लगातार जीत की चाह, न हार मानने की ज़िद और बार-बार अपग्रेड करने की दौड़ में न जाने कितने सारे युवा बर्नआउट का शिकार हो रहे हैं।

‘ग्राइंड कल्चर’ यानी लगातार अभ्यास, बिना ब्रेक जल्दी फेम पाने की चाह तक सीमित नहीं है, बल्कि कई बार शरीर और मन दोनों पर अप्रत्याशित बोझ बन जाता है। किसी भी गेम के टूर्नामेंट या लीक में बने रहना आसान नहीं है। प्रशंसा और ट्रोलिंग, दोनों साथ-साथ मिलती है। इसी कारण, टूर्नामेंट्स के दौरान कई खिलाड़ी नींद, खानपान या अपनी व्यक्तिगत जिंदगी तक को सोशल मीडिया और ट्रेनिंग के हवाले कर देते हैं।

अक्सर ई-स्पोर्ट्स खिलाड़ियों से “बार-बार जीतने” की उम्मीद की जाती है। सोशल मीडिया पर हज़ारों-लाखों प्रशंसक एक मैच में की गई छोटी सी गलती को तूल दे देते हैं, जिससे खुद पर संदेह और मानसिक थकावट बढ़ जाती है। कई बार टीम में आंतरिक प्रतिद्वंद्विता, अगली बार चुन लिए जाने का डर, तथा हार की स्थिति में ‘कद्र’ कम हो जाने का डर खिलाड़ियों को भावनात्मक रूप से तोड़ देता है।

अनेक रिसर्च यह दिखा चुकी हैं कि ई-स्पोर्ट्स में सक्रिय युवाओं की नींद में कमी आम है, नींद न आने की शिकायत, सिरदर्द, आंखों में जलन, हाथ-पैर की अकड़न, मोटापा, गर्दन की तकलीफ और कमर दर्द जैसी चिकित्सा समस्याएँ बहुत सामान्य हैं। मानसिक हलचल, चिंता, अनमना-सा रहना, अकेलापन, आत्मविश्वास में गिरावट, और कभी-कभी आत्मघात तक की स्थिति एक कठोर सचाई है जिसका सामना करने की हिम्मत हर कोई नहीं कर पाता।

सोचिए, जिनके हाथ में लाखों की इनामी राशि है, जिनकी एक-एक चाल पर करोड़ों की नज़र है, उन्हीं हाथों को जब बार-बार दोषी ठहराया जाता है, तो मन कभी-कभी खुद से भी हार जाता है। ऑफलाइन दुनिया छोटी हो जाती है, दोस्तियां छूटने लगती हैं और परिवार, खेल और निजी जीवन सब एक कोने में सिमटने लगता है।

कम उम्र के खिलाड़ी जिनके लिए ई-स्पोर्ट्स पहचान, आत्मसम्मान और जीवन का केंद्र बन जाता है, उनके लिए यह टूटन और गहरी होती है। बार-बार “ऑनलाइन” रहने की ज़रूरत, लगातार खुद से और दूसरों से आगे रहने का दबाव, आलोचना का डर ये सब मिलकर उस उम्र में भारी बोझ बन जाते हैं जो असल में सीखने, खेलने और खुलकर जीने का समय है।

ई-स्पोर्ट्स फ्रेंचाइज़ियाँ, टूर्नामेंट आयोजक और प्रायोजक अपने खिलाड़ियों को लेकर अक्सर यही मानते हैं कि प्रतिभा दिखाओं, खेलो, और बस सफलता लाओ। सीनियर कोचिंग, टीमों का मैनेजमेंट, ब्रांडिंग, मीडिया सभी के लिए खिलाड़ी एक उत्पाद की तरह हो जाता है कितना प्रदर्शन किया, कितनी बार जीत मिली, कितनी व्यूअरशिप है, कितने ब्रांड्स आ रहे हैं सब आंकड़े में बदल जाता है।

लेकिन जहां पैसा, शोहरत और ताकत आती है, वहां एक बड़ी ज़िम्मेदारी भी आती है खिलाड़ियों का ध्यान रखना, उनके स्वास्थ्य, मन और संतुलन की चिंता करना। खिलाड़ियों के अधिकांश अनुबंधों में प्रावधान तो खूब होते हैं, मगर क्या मानसिक सेहत के लिए भी कोई स्पष्ट योजना है? अधिकांश खिलाड़ियों को जब बर्नआउट या अवसाद की चिंता होती है, तो वे असहाय और अकेले पड़ जाते हैं – उनके लिए पेशेवर सहायता, काउंसलिंग या ब्रेक जैसी बुनियादी चीजें आज भी आसान नहीं हैं।

समाज, नीति-निर्माता और इंडस्ट्री को यह समझना ही होगा कि ई-स्पोर्ट्स अब यूं ही उग आया एक फल नहीं, बल्कि देश विदेश के युवाओं के लिए जीवन का सपना और करियर है। जिस तरह क्रिकेट, फुटबॉल या ओलंपिक में खिलाड़ियों के लिए मेडिकल और साइकोलॉजिकल सपोर्ट मौजूद है, उसी तरह ई-स्पोर्ट्स में भी मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल्स, लाइफ कोच, नियमित मेडिकल चेकअप, “स्क्रीन-ऑफ” डेज, और मानसिक सशक्तिकरण के सत्र जरूरी हैं।

टूर्नामेंट आयोजकों को चाहिए कि वे टूर्नामेंट शेड्यूल में आराम के अंतराल, हेल्थ ब्रेक, खिलाड़ियों की जरूरत के मुताबिक सपोर्ट सिस्टम और डॉमेस्टिक ट्रेनिंग के अलावा सबसे जरूरी चीज खिलाड़ियों के “इंसान” रहने का अधिकार सुनिश्चित करें। मीडिया को फेम के बजाय खिलाड़ियों की वास्तविकता और संघर्ष को भी सम्मान देना चाहिए, ताकि युवा पीढ़ी को सिर्फ चमक नहीं, हकीकत भी दिखे।

अब समय आ गया है कि ई-स्पोर्ट्स को सिर्फ “गौरव” या “कमाई” का साधन मानने की सोच बदली जाए। खिलाड़ियों को नंबर या फेम के पैमाने पर नहीं, उनकी सेहत, खुशहाली और व्यक्तित्व के आधार पर आंकना सीखें। जहां गलती हो, वहां आलोचना न कर मदद दें। हर टीम का, हर फ्रैंचाइज़ी का दायित्व है कि खिलाड़ी को सबसे पहले इंसान समझें, उसकी भलाई को प्राथमिकता दें। ब्रांड्स और स्पॉन्सर्स को भी “मुनाफा” से पहले “कल्याण” की भावना को शामिल करना चाहिए।

इस रेस में माता-पिता, परिवार, दोस्त, साथी और गुरु भी अहम हैं। केवल जीत की संभावनाओं पर दबाव डालने से बेहतर है, घर में मन की थकावट को पहचानना और समझना। बच्चों को “खेलते हो, कुछ बनोगे क्या?” कहने की बजाय, “ठक गए हो, आज आराम करो” कहना कहीं ज़्यादा इंसानियत भरा है। हर जीत के पीछे नींद, भूख और दिल की कीमत न चुकानी पड़े– इसके लिए परिवार की भूमिका सबसे बड़ी है।

गौरव, प्रसिद्धि, बड़ी इनकम… यह सब जश्न के लायक है। लेकिन अगर उनकी कीमत युवाओं का मन और तन चुकाए, तो वह गौरव सिर्फ भ्रम बन जाता है। असली खेल वो है जिसमें खिलाड़ी खुद को खोए नहीं, बल्कि अपनी पहचान, सेहत और खुशी के साथ जीता रहे।
ई-स्पोर्ट्स का भविष्य और चमक तभी तक है जब तक उसके खिलाड़ी स्वस्थ, खुशहाल और अपने सपनों के सफर पर निर्भीक हों। हमारी नीतियाँ, फ्रैंचाइज़ियाँ, टूर्नामेंट, कोचिंग और मीडिया सबकी जिम्मेदारी है कि फेम की इस आग में कोई मासूम आत्मा न जले, कोई सपना अधूरा न टूटे।

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